जब बरखा की वो बूँदें गिरती थी सूखे पत्तों पर
पत्ते खिल उठते थे हरे भरे से
कभी न कुछ कहा उन बूंदों ने
सिर्फ एक स्पर्श बहुत था ये बताने को
कि बूंदों को प्यार है इस धरा से
धरा कि हर सूखी पत्ती से
जब नदी ने सागर को समर्पित किया था खुद को -
जब अस्तित्व मिटा कर खो गयी थी सागर में,
कुछ भी न कहा था उस नदी ने खुद को खो कर भी
यूं भी कोई शब्द बयाँ न कर पाता उस समर्पण को
यूं तो हैं कोटि शब्द उस शब्दावली में
लेकिन उनके कंधे पे सर रख के रोने में वो सुकून है
जो उन लाखों शब्दों के ढेर में नहीं मिलता -
नवजात शिशु की बंद पलकों संग , बंधी मुठ्ठी में
माँ की ऊँगली पकड़ते प्रेम को किस शब्द में बयाँ कर पायेगी शब्दावली
जब शब्द नहीं कह सकते मेरे अंतर्मन की पीड़ा
नहीं जता सकते इस ह्रदय का प्रेम
उस मुहब्बत की जुबान नहीं बन सकते
तो क्यूँ शब्दों की दुहाई देते हैं वो मुझे
कुछ न कहा मैंने कभी
तो आँखों की ख़ामोशी का क्या कोई मोल नहीं
हर स्पर्श क्या नहीं कह जाता था हाल ए दिल तुम से---
न जाने क्यूँ वो एहसास न समझ पाए तुम
न जाने इन शब्दों का भी क्या अर्थ हो
पर चाहता हूँ, इन शब्दों में छुपे
उस प्यार को समझाने में तुम समर्थ हो
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